Wednesday, January 16, 2013

Pashya-papu!

एक

जीवन एक लंबे काल तक चलने वाली यात्रा है। उसकी शुरुआत के सात-आठ वर्ष तक हम स्वयं से भी अनजान-अजनबी रहते हैं। वह अबूझ जीवन माता-पिता छोटे-बड़े भाई और बहुतेरे सगे-संबंधियों के संपर्क में आता है। पराश्रय के बिना वह शैशव विकसित नहीं हो पाता। फिर भी उन सारे शैशव-संदर्भों की स्मृति हमारे भीतर बहुत कम बची रहती है। फिर शैशव बीत चुका होता है और घर या पाठशाला में अपने हमजोलियों के साथ घूमना-खेलना शुरू हो जाता है। तब के मित्रों की याद मन में अधिक बनी रहती है। लेकिन ये स्मृतियाँ भी तात्कालिक ही होती हैं। विद्यार्थी-जीवन के बाहर आकर जब हम युवावस्था में प्रवेश करते हैं, तब सुकोमल समृतियों से भरपूर होते हुए भी, आगे के सांसारिक झंझटों में कदम रखने पर कितने मित्रों की स्मृति रह पाती है ! महज एक या दो, अधिक हुआ तो दस-बारह।

अगली दुनिया एक दूसरी ही दुनिया होती है। जीवन के रंगमंच पर एक न्यारी और अपरिचित मित्रमंडली से हम आ जुड़ते हैं, कुछ लोग हमारे हितैषी और सहायक होते हैं, और कुछ हमें धकियाते हुए चले जाते हैं, लेकिन जीवन में गहरी स्मृति-रेखाएं खींच देने वालों की संख्या सदैव कम होती है। फिर बुढ़ापे में पहुंचने पर पुरानी स्मृतियों का कोष प्रायः चुक जाता है। वृद्धावस्था हमें उन तमाम लोगों से काट देती है, जो कि हमारे समवयस्क नहीं हैं। हमारे सुख या दुख के हिस्सेदार लोगों की संख्या भी उंगली पर गिनने लायक रह जाती है। साठ-सत्तर वर्ष की जीवन-यात्रा में जिन लोगों से हमारी मुलाकात हुई, जिनके साथ हम घूमे-फिरे-खेले, दुनियावी कामों और व्यावहारिकता के क्षेत्र में जिनसे संपर्क जुड़ा और टूटा, उन्हें अगर गिना जाए तो संख्या हजारों में बैठेगी। इस अपरिचित परिचय के बावजूद हम एक छोटा और अज्ञात मनुष्य बनकर दुनिया से कूच कर जाते हैं। कोई भाग्याशाली हो, तो उसके दस-बारह मित्र उसके अंत को याद करके ‘बेचारा ! चल बसा। इस उम्र में मौत के सिवा और क्या होता !’ कहेंगे और एक बूँद आंसू गिरा देंगे, या फिर आंसू बहाये बिना अपनी संवेदना प्रकट कर देंगे।

कितनी लंबी यात्रा है यह ! जाने कब शुरू हुई ! जाने कैसे-कैसे काम किए, और उनका फल हासिल किया ! कितना कमाया, कितना छोड़ा ? इस सबका हिसाब लगाया जाए तो सिर्फ घर-बार और कुछ रुपये-पैसे ही अंततः बचे रहते हैं। ‘चला गया न वह ! उसकी मृत्यु से हमारे जीवन में कुछ कमी जैसी आ गई है।’ लोगों के मन में ऐसा प्रभाव छोड़कर जा सकने का भाग्य कितनों को मिल पाता है !

ऐसी है यह जीवन-यात्रा। उस विराट नाटक का एक क्षणिक दृश्य है: गांव-गांव में भटकते रहने की यात्रा। यानी एक वास्तविक यात्रा। बस, गाड़ी या जहाज में हम किसी-न-किसी काम के लिए घूमते ही रहते हैं। अपनी जगहें बदल कर दूसरी जगहों में भी जाते हैं—कार्य की तलाश में, सुख और विलासिता की तलाश में। हम, आप, सब लोग। कुछ घंटों की बस-यात्रा के अलावा, रेलगाड़ी या जहाज में एक-दो बार हम सबने सफर किया ही होगा। उस समय के बाहर के स्थायी संसार को कुछ भूल जाते हैं। हम तब चलते रहते हैं न ! तो हम गाड़ी या जहाज में बैठे हैं, सैकड़ों-हजारों मील यात्रा करने वाले और लोग भी उसमें भरे हैं। गाड़ी या जहाज में सवार हो जाने के बाद उससे उतरने तक वही हमारा घर है। गाड़ी में अगर पहले से लोग ठुंसे हों, जो सामने आसन फैलाकर बैठे हुए हमारा चेहरा ताकते रहते हैं। कुछ यात्री हो जाने पर भी बिस्तर वैसे ही बिछाए हुए और नींद का बहाना किए हुए लेटे रहते हैं। ‘आने वालों को भी थोड़ी जगह दे दें’ –ऐसा बहुत कम लोग सोचते हैं।

और अगर जगह न हुई, तो देने का कोई सवाल ही नहीं। कई बार घंटों खड़े-खड़े जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में मानसिक उद्विगन्ता और उत्तेजना हो आती है। गाड़ी में बैठे मुसाफिरों पर क्रोध आने लगता है, जैसे कि हजारों पशु-पक्षी एक ही जगह एकत्रित कर दिए गए हों। तो साथियों से अपनी पसंद-नापसंद की बातें करते हुए रेल-यात्रा के सारे कष्ट भुलाए जा सकते हैं। कुछ लोग यात्रा में अपरिचितों से भी बातें करके हो घंटे में ही सारे मुसाफिरों को अपने पड़ोसी बंधु की तरह मानकर मजे से समय काट लेते हैं और एक नमस्कार के साथ उतर जाते हैं। उसके बाद कहां ये और कहां वे !

यायावरी जिनके जीवन का अंग बन गई है, उनमें भी कई तरह के लोग होते हैं। इंग्लैंड जैसे देश में रेलगाड़ी से सफर करना कई विचित्रताओं का अनुभव करना है। वहां एक आदमी दूसरे आदमी की जगह पर अपना हक नहीं जताता। जिन्हें जगह मिल जाती है, वे बैठे रहते हैं। दस-बारह घंटे पास-पास बैठकर वे यात्रा करते हैं। कोई किताब हो तो उसे पढ़ते रहते हैं, अन्यथा मूक प्राणियों की भांति बैठे रहेंगे। ‘आप कहां के रहने वाले हैं  ?’ ‘कहां जा रहे हैं, क्या काम करते हैं ?’ ‘कितना कमा लेते हैं ?’ जैसे सवाल वे कभी नहीं पूछते। आप सिर्फ अपने लिए हैं। गाड़ी सफर करने के लिए है, मित्रता बढ़ाने के लिए नहीं। सही हो या गलत, वहां के लोग इसी तरह सोचते हैं।....................................................................
            ಡಾ|| ಶಿವರಾಮ ಕಾರಂತರ ಉಪನ್ಯಾಸ "ಮೃತ್ಯು ಕೆ ಬಾದ್" ಎಂಬ ಗ್ರಂಥದಿಂದ ಆಯ್ದ ಭಾಗ.